जौं की खेती
यदि आप किसान हैं और अपनी खेती से अधिक लाभ और अच्छा उत्पादन प्राप्त करना चाहते हैं, तो आज इस लेख में जानेंगे जौं की खेती पूर्ण जानकारी।
दरअसल,जौं पुरे विश्व की चौथी महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। भारत में जौं की खेती के प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और जम्मू कश्मीर आदि हैं। इसकी खेती शीत ऋतु में की जाती है। देश में 8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हर साल लगभग 16 लाख टन जौ का उत्पादन होता है। इसका बहुत बड़ा उपयोग औधोगिक क्षेत्रों में किया जाता है। इसके प्रसंस्करण से शराब, बेकरी, पेपर, फाइबर पेपर, फाइबर बोर्ड जैसे उत्पाद बनाये जाते है।
जौं की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। बुवाई से लेकर परिपक्वता तक औसतन 15 से 30 डिग्री सेल्सियस बीच के तापमान की आवश्यकता होती है।
इसकी बुबाई के लिए बलुई दोमट मृदा की आवश्यकता होती है।
जौं की अच्छी पैदावार के लिए हल से दो बार और कल्टीवेटर से दो से तीन बार जुताई करके जमीन को भुरभुरा कर लें ताकि पौधों की अच्छी वृद्धि और बढ़ाव हो सके। बुबाई के समय उचित नमी रखें।
अधिकतम उपज के लिए 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक बुवाई पूरी कर लें। देर से बुवाई करने पर उपज में कमी आएगी और रोगों तथा कीटों का प्रकोप ज्यादा होता है।
पंक्ति से पंक्ति की दूरी 22.5 सेमी रखें तथा पौधे से पौधे की दुरी 10 सेमी रखते है।
सिंचित परिस्थितियों में फसल के लिए 3-5 सेमी की गहराई और बारानी परिस्थितियों के लिए 5-8 सेमी की गहराई का प्रयोग करें।
सिंचित परिस्थितियों में 50 किग्रा/एकड़ की दर से बीज दर का प्रयोग करें तथा असिंचित परिस्थितियों में 60 किग्रा/एकड़ की दर से बीज दर का प्रयोग करें।
महत्वपूर्ण बिंदु
किस्म के उपयोग के आधार पर फसल मार्च या अप्रैल के अंत में पक जाती है। अधिक पकने से बचने के लिए कटाई में देरी से बचें। कटाई का सही चरण तब होता है, जब अनाज में नमी 25-30% तक पहुंच जाती है। कटाई के बाद सूखी जगह पर स्टोर करें।
चेपा, माहू: यह पारदर्शी रस चूसने वाला कीट है। माहू के हमले से पत्ते पीले पड़ जाते हैं। ज्यादातर इसका हमला जनवरी के दूसरे पखवाड़े पर होता है। इसके नियंत्रण के लिए 5-7 हज़ार क्राइसोपरला प्रीडेटर प्रति एकड़ की दर से और 50 ग्राम नीम का घोल प्रति लीटर के हिसाब से इस्तेमाल करें एवं रासायनिक नियंत्रण के लिए फसल में थाईमैथोक्सम या इमीडाक्लोप्रिड 60 मि.ली. को 100 लीटर पानी के साथ घोल तैयार कर प्रति एकड़ से स्प्रे करें।
रतुआ: इस बीमारी से पत्ते, तने और फूलों वाले भाग के ऊपर सफेद आटे जैसे धब्बे पड़ जाते हैं यह धब्बे बाद में सलेटी और भूरे रंग के हो जाते हैं और इससे पत्ते के अन्य भाग सूख जाते हैं। इस बीमारी का हमला ठंडे तापमान और भारी नमी में बहुत होता है। घनी फसल, कम रोशनी और सूखे मौसम में इस बीमारी का हमला बढ़ जाता है। बीमारी आने पर 2 ग्राम घुलनशील सल्फर प्रति लीटर पानी में या 200 ग्राम कार्बेनडाज़िम प्रति एकड़ में छिड़काव करें। गंभीर नुकसान होने पर 1 मि.ली. प्रॉपीकोनाज़ोल प्रति लीटर पानी मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से स्प्रे करें।
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